स्वरों की संगत में...

 


जन्म, मृत्यु अपने हाथ में नहीं रहते। हम यह तय नहीं कर सकते है कि हमारा जन्म कहां हो, कब हो. किस परिवार में हो। इसी प्रकार मृत्यु भी कब हो, कहां हो, कैसे हो - यह सब ईश्वर के हाथ में होता है। और ईश्वर की, मैं समझता हूं, मुझ पर असीम कृपा रही है कि मेरा जन्म एक ऐसे संगीत के परिवार में हुआ है जो कि एक प्रगतिशील परिवार रहा है। इसका मुझे आनंद है और यह मेरा सौभाग्य है। यह आनंद और सौभाग्य का भाव आगे चलकर प्रतीत होता है क्योंकि एक नवजात शिशु को तो यह अनुभूति नहीं हो सकती। यह बाद में महसूस किया मैंने कि वाकई कितना सौभाग्यशाली हूं मैं । सांगीतिक परिवार में जन्म होने से संगीत के वातावरण में पलता गया। और इस वातावरण का पर्याप्त परिणाम मुझ पर हुआ। और वह एक अच्छी बात, मैं मानता हूं। मैं अपने माता-पिता की एकमात्र संतान हूं। कहने के लिए मेरी एक बहन थी, जो बहुत छोटी उम्र में ही हमसे बिछड़ गई। यह मेरे जन्म से पूर्व की घटना है। मेरे पिताजी का नाम पं. नारायणराव व्यास व माताजी का नाम सौ. लक्ष्मीबाई व्यास। इनकी शादी हुई 1924 में। मेरे पिताजी का जन्म 1902 में हुआ। और जब उनकी आय 11 वर्ष थी, तब वह मुंबई में गंधर्व विद्यालय में, पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के शिष्य बने। जिस परिवार में मेरे पिताजी का जन्म हुआ, वह कोल्हापूर का एक परिवार था। और मेरे दादाजी पंडित गणेशपंत व्यास। वह संस्कृत के पंडित थे। और देवी की पूजा-अर्चना, यही उनका एक तरह का मुख्य कार्य था। कोल्हापुर में प्रसिद्ध महालक्ष्मी मंदिर है, जिसे अंबाबाई मंदिर भी कहा जाता है, बहुत ही प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है, एक शक्तिपीठ जैसा है, तो उस मंदिर में उनकी नियुक्ति प्रमुख पौराणिक के पद पर हुई थीऔर मंदिर के पास ही एक वाड़ा अर्थात एक बड़ा मकान था उसमें वह सपरिवार रहते थे, जिसके वह मालिक थे। और वह वाड़ा 'व्यासांचा वाड़ा' कहलाता था, यानि व्यास जी का घर। घर में वातावरण भी संस्कृत और भक्ति का था। मंदिर में सतत आना-जाना रहता था। मेरे दादाजी का परिवार बड़ा था। मेरे पिताजी भाइयों में सबसे छोटे, और उनसे बड़े भाई थे शंकरराव व्यास। इन दोनों में संगीत की बहुत प्रतिभा थी। जहां पर भी कुछ संगीत होता था, गाना-बजाना होता था, वहां दोनों जाते थे, और वे 'व्यास बंधू' के नाम से जाने जाते थे। घर में संगीत का वातावरण कुछ इस तरह था कि मेरे दादाजी सितार बजाते थे। और हारमोनियम भी बजाते थे। घर में हारमोनियम था, सितार था। उस जमाने के मशहूर हारमोनियम वादक थे गोविंदराव टेंबे संगीतकार, वे भी कोल्हापुर के थे, उनका हमारे घर में आना-जाना था। तो इस तरह घर में संगीत का भी वातावरण था, और संस्कृत का। पं. नारायणराव व्यास और शंकरराव व्यास उस समय स्कूल जाते थे और संगीत का विशेष आकर्षण था उनमें। उस समय पं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने गंधर्व महाविद्यालय स्थापित किया था। और वह जगह-जगह जाकर कार्यक्रम करते थे, और धन इकट्ठा करके गंधर्व विद्यालय का खर्च चलाते थेगंधर्व महाविद्यालय गुरुकुल था। पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर संगीत महर्षि, संगीत उद्धारक थे और उनका बड़ा कार्य था। उन्होंने 1901 में लाहौर में गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की। और 1908 में गंधर्व विद्यालय की मुंबई शाखा की स्थापना की। बाद में धीरे-धीरे मुंबई ही उसका केन्द्र बन गया___ गंधर्व महाविद्यालय एक गुरुकुल था। मुंबई में पंडित जी ने एक बड़ी इमारत बनाई। विद्यार्थियों को रखते हुए, उनका सारा खर्चा करते हुए, बिना किसी शुल्क के वे संगीत शिक्षण करते थे। वे जगह-जगह घूमते थे एवं प्रतिभाशाली बच्चों को ढूंढते थे, उनको बुलाते थे। उनके घरवालों को मनाते थे कि इन्हें भेजिए, हम संगीत सिखाएंगे। और संगीत में ही इनका व्यवसाय हो जाए, हम ऐसा प्रयास करेंगे। उस जमाने में एक बात थी कि संगीत का समाज में स्थान इतना अच्छा नहीं था। तो सम्भ्रांत घर के लोग, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी, उनके घर के बच्चे, यद्यपि संगीत के गुण उनमें होते थे फिर भी पूरी तरह से संगीत के प्रति समर्पित हो सकें, कि संगीत में ही कुछ करेंगे, ऐसा वातावरण नहीं था। क्योंकि संगीत कला को पूरी तरह से प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई थी। तो इसलिए जो बच्चे आते थे, वे सामान्य आर्थिक स्थिति जिनकी कमजोर होती थी, ऐसे बच्चे आते थे। क्योंकि देखा जाए तो वहां एक आकर्षण था कि अगर यहां एक बार स्वीकार कर लिया तो उनका कोई खर्चा उनके परिवार पर नहीं रहता था। उनका खाना-पीना, रहना, शिक्षा, संगीत शिक्षण, यह सारे खर्च पंडित जी वहन किया करते थे। हां एक बात थी कि पंडित जी एक बांड जरूर भरवा लेते थे कि जिस बच्चे पर यह सब खर्चा कर रहे हैं, वो बीच में छोड़कर चला गया तो, या फिर ऐसे ही आया हो कि खाना-पीना मिल रहा है, संगीत सीखे न सीखे। इस सोच से कोई आए, मन लगाकर न सीखे तो पंडित जी, जो कि इतना धन खर्च करते थे, इसलिए ये बांड लिखवा लेते थे कि कम से कम नौ साल अथवा दस-ग्यारह साल, यहां पर रहकर, संगीत सीखूगा और बीच में छोड़कर नहीं जाऊंगा। यह पंडित जी तय किया करते थे कि बच्चा कितने साल रहेगा, कितने साल विद्या ग्रहण करेगाऔर अगर उनको लगता था कि सात-आठ साल इसके लिए काफी है तो उतना ही समय रखते थे। अभिभावकों से यह सब लिखवा लेते थे, और साथ ही यह भी लिखवा लेते थे कि अगर बीच में यह छोड़कर चला जाएगा तो आप मुझे यह सारा खर्चा उसके ब्याज के साथ लौटा देंगे। उनके अभिभावकों से इस आशय का बांड लिखवाया जाता था। बच्चा बीच में छोड़कर नहीं जायेगा। या हम इसे निकालेंगे नहीं गुरुकुल से। हुआ यूं कि, पंडित जी धनार्जन करने के लिए जगह-जगह जाते थे, और साथ में जहां-जहां वे जाते थे, देखते थे, कि कौन-कौन से परिवार के बच्चे हैं, जो अच्छा गाते हैं, जैसे विद्यार्थी हमें चाहिए। उस दौरान कोल्हापुर में उनका आगमन हुआ था। उनके कार्यक्रम भी हुए, जैसे आजकल के हाउसफुल प्रोग्राम होते हैं, ऐसे बहुत सफल कार्यक्रम हुए।